– कु. गार्गी त्यागी
बी.ए. द्वितीय वर्ष
समझो जरा मुझको भी तो ,
मैं भी तो एक इन्सान हूँ।।
ह्दय से मिलता मान हूँ, दो भृकुटियों की शान हूँ।
मस्तक नवाकर देवों को देते हैं वो सम्मान हूँ।।
वेदो से निकला ज्ञान हूँ, उस चक्र की मैं शान हूँ।
मृत्युंजय के डमरू से निकला , मैं वहीं गुणगान हूँ।।
माँ शारदे की वीणा की सरगम से निकली मान हूँ।
जगदम्बा के सतित्व का मैं मान हूँ सम्मान हूँ।।
सूर का सागर हूँ मैं, रस से भरी मैं खान हूँ।
तुलसी की रघुनन्दिनी , धनानन्द की मैं सुजान हूँ।
ज्यों -ज्यों बढ़ा आगे ये युग, त्यों -त्यों क्षति मेरी हुई।
अपने ही इस स्वराज्य में, रानी बनी अनजान हूँ।।
चिरकाल से पूजा मुझे, अब हेय दृष्टि डालते,
जननी हूँ मैं इस विश्व की , जाने में सब, न मानते।।
कवि द्ददा के साकेत की , दुखियाँ मैं कौशल मात हूँ।
अश्रु अरे लोचन लि ए, आजिया सी चुपचाप हूँ।।
संसार सारा स्वरहा , न जाने कैसा खेल है।
है धात्री लेकिन तनय का , न धात्री से कोई मेल है।।
क्यूँ स्व रहा है वि श्व ये इति वृत, अब तू बोल दे।
एक माल और पुत्रों के मध्य, कपाट अब तू खो ल दे।।
जागे ये युग, समझे ये युग, नेत्रों को अपने खोल दे।
है मात मेरी हिन्दी भाषा , गर्व से ये बोल दे।।
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